पत्रकारिता की भाषा
आलोक मणि त्रिपाठी
सरोज विद्याशंकर स्नातकोत्तर महाविद्यालय सुजानगंज जौनपुर
शब्द अंग्रेजी के”जर्नलिज्म”का हिन्दी रूपांतरण है। जिसका आशय है 'दैनिक'। अर्थात जिसमें दैनिक कार्यों का विवरण हो। पत्रकारिता लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है,प्रतिपल परिवर्तित होने वाली जीवन और जगत का दर्शन पत्रकारिता द्वारा ही सम्भव है। परिस्थितियों का अध्ययन चिंतन मनन और आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति और दूसरों के कल्याण की भावना ने ही पत्रकारिता को जन्म दिया।
आधुनिक हिन्दी के निर्माता कहें जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिस पत्रकारिता की शुरुआत की वह जन आकांक्षाओं और स्वातंत्र्य चेतना से जुड़ी हुई थी। यद्यपि उस समय हिन्दी का का वर्तमान स्वरूप नहीं बन पाया था, फिर भी पत्रकारिता की जो भाषा प्रयुक्त होती थी वह लोक मंगल कामना की भावना से प्रेरित थी। भारतेंदु जी के अनुसार पत्रकारिता की भाषा सौम्य और सभ्य होनी चाहिए, और समाज के बहुत बड़े तबके के समझ में आनी चाहिए, इसमें शालीनता भी आवश्यक है और ओज भी, भाषा सरल होनी चाहिए जिससे कम पढ़े लिखे लोग भी आसानी से घटना को समझ सके।
पत्रकारिता के भाषा के सन्दर्भ में डा अर्जुन सिंह कहते हैं कि “सम्पादक को भाषा पर ध्यान देना चाहिए, अलग-अलग घटनाओं को सरल एवं प्रभावशाली शब्दावली में सम्पादित करना चाहिए।यदि पत्रकारिता की भाषा पर ध्यान नहीं दिया गया तो पत्रकारिता ही खराब हो जाती है, इसलिए पत्रकारों को भाषा पर विशेष ध्यान देना चाहिए।“
और साहित्य की भाषा अलग-अलग होती है। पत्रकारिता की अच्छी भाषा वहीं है जिसमें बात साफ,सरल और सहज तरीके से लोगों तक पहुंच सकें। साहित्य की भाषा के मामले में लेखक स्वतंत्र है, क्योंकि वह लेखक की नीजि कृति होती है। पत्रकारिता के लिए अच्छे और सुंदर शब्द वहीं है जो पाठक दर्शकों एवं श्रोताओं की समझ में आते हैं,वो नहीं जिन्हें पत्रकार नीजि तौर पर अच्छे और सुंदर शब्दों में प्रस्तुत करता है।
“भाषा बहुत बारीक चीज है ,जिसकी समझ आते -आते ही आती है।“
में हमेशा छोटे और स्पष्ट वाक्य का प्रयोग करना चाहिए, एक ही वाक्य ने संपूर्ण घटना का वर्णन नहीं होना चाहिए सिर्फ जरूरी घटनाओं का विवरण होना चाहिए।
बहुत सर होने के चक्कर में गलत शब्द नहीं लिखना चाहिए और देशज शब्दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए की जिसका ऐसे ही जनमानस न जानते हों।
पंडिताऊ भाषा की जगह आम जनमानस की बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
पत्रकारिता की भाषा बहुत ही प्रभावी होती है। मेहनत सजगता से गढ़ी हुई भाषा होती है, जिसका आशय अपनी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने का कार्य है।
आज अधिकतर पत्रों की भाषा दूषित हो चुके हैं, हिंदी समाचार पत्रों में धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो रहा है । क्या किसी अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के शीर्षक में कोई हिंदी का शब्द प्रकाशित होता है ? फिर यह खिचड़ी भाषा हिंदी पत्रकारिता में ही क्यों स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने भाषा के प्रति जो चेतना जागृत की उसका निर्वहन जनसत्ता लगातार करता आ रहा है।
स्वर्गीय डॉक्टर विद्यानिवास मिश्र जब ‘नवजागरण टाइम्स' के संपादक थे उस समय के किसी पत्र को उठाकर उसकी तुलना आज के नवभारत टाइम की भाषा शैली में की जाए तो सहज ही अंतर स्पष्ट हो जाएगा। मिश्रा जी अंग्रेजी के विद्वान थे परंतु हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते थे।मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि पत्रकारिता में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग न किया जाए, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए पर अपनी भाषा में जब उस शब्द का विकल्प है तो हमें अपनी भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए।
निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।। ( भारतेंदु हरिश्चंद्र)
जहां तक हिंदी भाषा नहीं कठिन शब्दों की बात है तो आज तक किसी को किसी अंग्रेजी भाषी से यह कहते हुए नहीं सुना होगा कि आप बहुत कठिन अंग्रेजी बोलते / लिखते हैं बल्कि उसकी सराहना ही की जाती है। उसका अस्तर ऊंचा है फिर हम हिंदी भाषी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों?
हालांकि निजीकरण,उदारीकरण- भूमंडलीकरण की प्रक्रिया अपने साथ नई तकनीक लेकर आई । नई तकनीक का लाभ हिंदी पत्रकारिता को खूब मिला। जिसके सहारे हिंदी अखबारों के एक साथ कई संस्करण प्रकाशित होने लगे । भारत में संचार क्रान्ति का रास्ता खुला महानगरों के अलावा छोटे शहरों कस्बों से भी हिंदी के अखबार प्रकाशित होने लगे। दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका ,दैनिक भास्कर ,अमर उजाला हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़ें एवं वितरित किए जाने वाले अखबारों में शुमार होने लगे । उन सब ने हिंदी की सार्वजनिक दुनिया को पुनर्परिभाषित किया।
प्रभाष जोशी,राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों ने 80 के दशक में ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू किया जिसकी पहुंच हिंदी के बहुसंख्यक पाठकों तक थी । इन पत्रकारों ने बोलियों और लोक से जुड़ी हुई भाषा का प्रयोग किया। जिससे अखबार की भाषा लोगों के सरोकार से जुडी ।पर बाद के दशक में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल बढ़ने लगा और एक नए उभर रहे मध्यम वर्ग को लक्ष्य की हुई भाषा अपनाई जाने लगी । हिन्दी पत्रकारिता में इसका अगुवा नवभारत टाइम्स रहा।
नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक श्री बालमुकुंद 2006 के अपने एक लेख में लिखा-“किसी भाषा को बनाने का काम पूरा समाज करता है और इसकी शक्ल बदलने में कई पीढ़ियां लग जाती हैं। लेकिन इस बात का श्रेय ' नवभारत टाइम्स ‘को जरूर मिलना चाहिए कि उसने उस बदलाव को सबसे पहले देखा और पहचाना जो पाठकों की दुनिया में आ रहा था। दूसरे अखबारों को उस बदलाव की वजह से नवभारत टाइम्स के रास्ते पर चलना पड़ा।“
पत्रकारिता का उद्देश्य यही है कि उसकी बात लाखों लोग तक पहुंच सकें, भाषा के ज्ञान का प्रर्दशन करने की जगह पत्रकारिता नहीं है। समय की मांग को देखते हुए भाषा का प्रयोग आवश्यक है पर अपनी भाषा लुप्त न हो जाए, इसका भी ध्यान देना आवश्यक है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संचचार का सबसे बड़ा माध्यम है, यह कहना अनुचित नहीं है कि वर्तमान समय में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नकल समाज धड़ल्ले से कर रहा है, अपितु हम हिन्दी का उपयोग अधिक से अधिक करते हुए आवश्यकता पड़ने पर ही अन्य भाषा का प्रयोग करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी-हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास ( प्रभात प्रकाशन दिल्ली)
डॉ राजकिशोर-समकालीन पत्रिका का मूल्यांकन और मुद्दे ( वाणी प्रकाशन दिल्ली)
डॉ रामचंद्र तिवारी-हिन्दी का गद्य साहित्य (विश्व विद्यालय प्रकाशन वाराणसी)
श्री अरविन्द दास- हिन्दी समाचार: राज्य समाज और भूमंडलीकरण (अंतिका प्रकाशन दिल्ली)
श्री कृष्ण विहारी मिश्र-हिन्दी पत्रकारिता : जातिय चेतना और खड़ी बोली साहित्य का निर्माण (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली)
श्री आलोक मेहता – भारत में पत्रकारिता (नेशनल बुक दिल्ली)
डॉ अर्जुन सिंह – हिन्दी पत्रकारिता (ज्ञान भारती प्रकाशन प्रयाग )