मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

उपन्यास के तत्व

संपूर्ण उपन्यास की कहानी जिन उपकरणों से मिलकर बनती है वे कथावस्तु कहलाते हैं। यह उपन्यास की आधारभूत सामग्री है जो लेखक अपनी आवश्यकतानुसार विस्तृत जीवन क्षेत्र से चुनता है। इसके चुनाव में लेखक के लिए पहली आवश्यकता यही होती है कि वे जीवन के ऐसे मार्मिक एवं रोचक प्रसंगों, घटनाओं और परिस्थितियों का चयन करे जो रुचिकर और प्रेरणाप्रद हो। यथार्थ जीवन से कथावस्तु को चुने जाने के कारण उपन्यासकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह कपोलकल्पित न लगे तथा उसमें विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता की पुष्टि हो। कथानक ही उपन्यास की वह पूरी प्रक्रिया है जिस पर उपन्यास की विशेषता निर्भर करती है।

            कथानक चाहे जहाँ से भी ग्रहण किया जा सकता है – इतिहास, पुराण, जीवनी, अनुश्रुति, विज्ञान, राजनीति इत्यादि। लेकिन उपन्यासकार का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह अपनी कथावस्तु का निरुपण करते समय जीवन के प्रति सच्चा और ईमानदार हो अर्थात उसकी कृति में मानव-जीवन और मानव स्वभाव का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सार्वभौमता उसका अनिवार्य गुण है। जब तक वह मानव-जीवन के संघर्षों, उसकी कामनाओं और आकांक्षाओं, उसके राग-द्वेषों, अभावों आदि का चित्रण नहीं करेगा, तब तक उसकी कृति का महत्व नहीं होगा। आभिजात्य कुलों और संपन्न परिवारों का जीवन ही सघन, घटना-संकुल, संघर्षशील और नैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं होता, गरीब, साधारण व्यक्तियों के जीवन में भी ये सब बातें पायी जाती हैं, अतः उपन्यास का विषय साधारण व्यक्ति और उनका जीवन भी हो सकता है; उपन्यासकार के लिए कथावस्तु चुनने की एकमात्र कसौटी यह है कि वह जीवन को समग्र और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करे।

             कथा-प्रसंग चयन के बाद लेखक को चाहिए कि वह अपनी कथा-सामग्री को क्रमबद्ध, सुसंबद्ध रूप में सुनियोजित करे। कथा-नियोजन इस प्रकार होनी चाहिए कि पाठक की उत्सुकता और जिज्ञासा आरम्भ से लेकर अंत तक बनी रहे। कथा सूत्रबद्ध होनी चाहिए तथा सभी प्रासंगिक और अवांतर कथाएँ मुख्य कथा से जुड़ी होनी चाहिए। कथानक में तीन गुणों का होना आवश्यक है – रोचकता, संभाव्यता और मौलिकता। इस तरह कहा जा सकता है कि कथानक रोचक, सुसंबद्ध, गतिशील, उत्साहवर्धक, मौलिक तथा स्वाभाविक जीवन वृत्तियों से पूर्ण होना चाहिए।


 

पात्र अथवा चरित्र-चित्रण

            उपन्यास में पात्र वह मूलशक्ति है जिसके सहारे जीवन यथार्थ या परिस्थितियों का ब्यौरा दिया जाता है। अर्थात उपन्यास के भीतर परिस्थितियों को धारण करने वाला पात्र कहलाता है। पात्र जितने सजीव और यथार्थ जीवन से सम्बद्ध होंगे, उपन्यास उतना ही आकर्षक होगा। अतः जहाँ तक संभव हो सके सभी पात्रों का सजीव चरित्र-चित्रण होना चाहिए। पात्रों के कार्यों और विचारों का पाठक के मानस पटल पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ना चाहिए। उपन्यासकार की महानता इसी बात पर निर्भर करती है कि उसके पात्र कितने समय तक पाठक के स्मृति पटल पर अंकित रहते हैं, तथा उसकी भावना को किस हद तक प्रभावित करते हैं। वे पात्र जो देशकाल की सीमा पार कर पाठकों के चित्त में स्थायी रूप से बस जाते हैं, अमर पत्र कहलाते हैं, जैसे – हैमलेट, सूरदास, होरी आदि। उपन्यासकार की महानता की एक कसौटी यह भी है कि वह अपनी कृतियों में चरित्र को कितनी विविधता दे सका है, उसके चरित्र-चित्रण की सीमाएं क्या हैं? उसके पात्रों में कितना विस्तार और कितनी गहराई है? इस प्रकार उपन्यासकार की पात्र सृष्टि स्वाभाविक, यथार्थ, सजीव और मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए।

            चरित्र-चित्रण में उपन्यासकार उस प्रभाव को ही अंकित नहीं करता जो बाह्य परिस्थितियों के द्वारा पात्रों पर पड़ता है, प्रत्युत वह पात्रों के अंतर्द्वन्द्व का भी चित्रण करता है। आजकल उपन्यास में इस प्रकार के अंतर्द्वन्द्व को ही महत्व दिया जाता है। उपन्यास में चरित्रों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है –

वर्गगत और व्यक्तिगत पात्र – उदाहरण के लिए गोदान में रायसाहब और अज्ञेय का शेखर वर्गगत एवं व्यक्तिगत पत्र है।


आदर्श और यथार्थ चरित्र – आदर्श पात्र में गुणों की प्रधानता होती है जबकि यथार्थ पात्रों में अच्छाई-बुराई दोनों का समन्वय होता है।


स्थिर और गतिशील चरित्र - क्रमशः गोदान का होरी तथा सेवासदन का विनय गतिशील एवं स्थिर पात्र है।


            किसी भी उपन्यास में सफल चरित्र-चित्रण के लिए मानव-स्वभाव का सामान्य ज्ञान, मनुष्य के अंतर्मन का परिचय, उसके भावों, विचारों, रागद्वेशों, अन्तःसंघर्षों की जानकारी के अतिरिक्त सहानुभूति, कल्पना-शक्ति तथा वर्ग-विशेष की जानकारी अपेक्षित है। घटनाओं और पात्रों के बीच तारतम्यता का होना भी आवश्यक है। घटनाएं ऊपर से थोपी या आकस्मिक प्रतीत न हों, पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं से उद्भूत होती प्रतीत हों और पात्र लेखक की कठपुतली-मात्र न होकर स्वतंत्र अस्तित्व वाले हों। परिस्थितियाँ पात्रों को एक विशिष्ट दिशा में उन्मुख होने की प्रेरणा दें, तो पात्र परिस्थितियों को बदलने में, घटनाओं को नया मोड़ देने में समर्थ हों; न तो घटनाएं और कार्य पात्र की प्रकृति और परिस्थिति के प्रतिकूल हों और न पात्र परिस्थितियों से अलिप्त तथा असामान्य प्रतीत हों।

कथोपकथन

            उपन्यास में कथोपकथन से तात्पर्य है दो या दो से अधिक पात्रों का परस्पर वार्तालाप। कथोपकथन के प्रमुख उद्देश्य हैं- पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथानक के प्रवाह में सहायता प्रदान करना तथा घटनाओं में तीव्र गति का संचार करना।

            कथोपकथन जितने पात्रानुकूल, स्वाभाविक, अभिनयात्मक, संक्षिप्त, सरल एवं प्रभावी होंगे, घटनाओं एवं चरित्रों में उतनी ही सजीवता आएगी। चुस्त, चुटीले एवं प्रसंगानुकूल कथोपकथन से कृति में एक विशेष गरिमा का संचार होता है। लेखक का कौशल अन्य बातों में तो परखा ही जाता है, कथोपकथन में खास रूप से परखा जाता है।

            यदि उपन्यास के कथोपकथन रोचक, स्वाभाविक, सहज, पात्र और परिस्थिति के अनुकूल हो तो उनसे उपन्यास में नाटक की सी विशदता, सजीवता और यथार्थता आ जाती है। किन्तु कथोपकथन का अधिकाधिक प्रयोग करने के स्थान पर विवेकपूर्ण एवं सोद्देश्य प्रयोग होना चाहिए। यदि लेखक में कुशल कथोपकथन-योजना की क्षमता है, तो वह विश्लेषण, मत प्रतिपादन तथा अपनी ओर से कार्य-कारण-मीमांसा का काम कथोपकथन से ही ले सकता है। कथोपकथन की भाषा ही पात्रानुकूल नहीं होनी चाहिए वरन उसका विषय भी पात्रों के मानसिक धरातल के अनुरूप होना वांछनीय है। लेखक कभी-कभी निजी सिद्धांतों के उद्घाटन और गूढ़ तथा विशेष ज्ञान के प्रदर्शन का मोह संवरण नहीं कर सकते हैं। उन सिद्धांतों के उद्घाटन के लिए वैसे ही पात्रों की श्रृष्टि होनी चाहिए।  
 देशकाल-वातावरण

            उपन्यास में देशकाल- वातावरण अथवा युग-धर्म की सजीवता भी आवश्यक है। इसी कारण लेखक अपने उपन्यास में युग विशेष और देश विशेष की सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाज, आचार-विचार, संस्कृति, सभ्यता और विचारधारा पर प्रकाश डालता है, जिससे उसका उपन्यास वास्तविक और सजीव बन जाए। पात्रों के कथन, क्रिया-कलाप, वेश-भूषा, खान-पान, आचार-विचार सबमें युगधर्म की स्वाभाविकता झलकनी चाहिए। वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास और प्रेमचंद के सामाजिक उपन्यास युगधर्म की सजीव झाँकियाँ प्रस्तुत करते हैं।

            वस्तुतः उपन्यास मानव-जीवन का चित्रण है जिसमें प्रधानतः मनुष्य के चरित्र का सजीव वर्णन रहता है। निश्चय है कि मनुष्य का सम्बन्ध अपने युग, समाज, देश और परिस्थितियों से रहता है अथवा मानव के चारित्र्य की पृष्ठभूमि में देश-काल का चित्रण उसका आवश्यक अंग है। जितनी ही वास्तविक पृष्ठभूमि में चरित्रों को प्रकट किया जायेगा, उतनी ही गहरी विश्वसनीयता का भाव जगाया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि के बिना हमारी कल्पना को ठहरने की कोई भूमि नहीं मिलती और न हमारी भावना ही रमती और विश्वास करती है।

            परिस्थिति अथवा पृष्ठभूमि का चित्रण दो रूपों में होता है – एक तो समान और अनुकूल रूप में, दूसरे चरित्रों के लिए विषम और प्रतिकूल रूप में। पात्रों और उद्देश्य के अनुरूप उपन्यासकार दोनों ही स्थितियों का चित्रण कर हमारी कल्पना और अनुभूति को सजग करता है। सामाजिक उपन्यासों में तो लेखक प्रायः अपने युग की देखी-सुनी और अनुभूत पृष्ठभूमि देता है और पाठक के समसामयिक होने के कारण उसको जांचने और विश्वास करने का अवसर रहता है। आगामी युगों के पाठक के लिए तो सामाजिक उपन्यासकार सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री प्रदान करता है। अतः मेरा तो विश्वास यह है कि यदि उपन्यासकार अपने समाज का अत्यंत यथार्थ - यहाँ तक कि ऐतिहासिक यथार्तता को ध्यान में रखकर वास्तविक जीवन का चित्रण करता है, तो वह न केवल साहित्य की सृष्टि करता है, वरन सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास के लिए भी सामग्री तैयार करता है या पृष्ठभूमि बनता है। सामाजिक उपन्यासकार की अपेक्षा अधिक कठिनाई ऐतिहासिक उपन्यासकार की युग की पृष्ठभूमि का चित्रण करने में उपस्थित होती है।

            इस तरह कथानक को वास्तविकता का आभास देने के साधनों में वातावरण मुख्य है। उसके लिए स्थानीय ज्ञान अत्यंत आवश्यक होता है। वर्णन में देश विरुद्धता और कल-विरुद्धता के दोष नहीं आने चाहिए। देश-काल-चित्रण का वास्तविक उद्देश्य कथानक और चरित्र का स्पष्टीकरण है। अतः उसे इसका साधन ही होना चाहिए, स्वयंसाध्य न बन जाना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों का संयोजन यथार्थता का भी आभास देता है और भावों को उद्दीप्त भी करता है। अतः स्थानिक विशेषताओं का ध्यान रखते हुए प्रकृति की भावानुकूल पृष्ठभूमि देना उपन्यास की रोचकता की वृद्धि में सहायक होता है।


 

भाषा-शैली

            वस्तुतः उपन्यासकार भाषा-शैली के माध्यम से ही अपनी अनुभूतियों को अभिव्यंजित करता है। भाषा में सरलता, स्वाभाविकता, सजीवता, भावानुरुपता, प्रभावोत्पादकता, स्वाभाविक अलंकरण, लाक्षणिक और व्यंजक प्रयोग, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि कलात्मक प्रयोग व भाषा-शैली, प्रत्यक्ष शैली, पत्र-शैली, पूर्व-दीप्ति शैली में से किसी एक शैली का प्रयोग कर सकता है।

            जितनी स्वाभाविक अर्थात पात्रानुकूल और स्थिति के अनुरूप शैली होगी, उतना ही उसका प्रभाव पड़ेगा। उपन्यास की शैली संकेतात्मक न होकर विवृतात्मक होती है, क्योंकि उसे पूर्ण वातावरण और उसमें रस और भावों की सृष्टि करनी होती है। अतः पात्र की शिक्षा, संस्कृति और मानसिक धरातल के अनुरूप ही उसकी भाषा होनी चाहिए। इसके लिए पांडित्यपूर्ण, व्यंग्ययुक्त भाषा से लेकर ठेठ प्रादेशिक और ग्राम्य भाषा तक का प्रयोग यथावश्यक रूप में किया जाता है। शैली के सम्बन्ध में सामान्य-रूप से ये बातें ध्यान में रखने पर भी एक उपन्यासकार की शैली दूसरे से भिन्न होती है। प्रत्येक का अपना निजी अनुभव-क्षेत्र, वातावरण, संस्कार एवं शिक्षा होती है, अतः जीवन को देखने और उसको चित्रित करने के अपने निजी ढंग हैं। निजीपन के होते हुए भी, स्वाभाविकता और प्रभाव शैली की विशेषताएँ होनी चाहिए।

उद्देश्य

            साहित्य की सभी विधाओं का उद्देश्य आनंद प्रदान करना है। उपन्यास भी उससे वंचित नहीं है। साहित्य आनंद प्रदान करता है किन्तु वह सस्ते मनोरंजन का साधन नहीं बन सकता। उपन्यासकार को अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति इस प्रकार करनी चाहिए कि वह उपदेशात्मक न दिखे। बल्कि पाठक अपनी बुद्धि एवं विवेक के अनुसार निष्कर्ष निकाले, उपन्यास का गठन इस प्रकार से होना चाहिए। उपन्यास के उद्देश्य के सन्दर्भ में प्रेमचंद ने कहा है कि –

            “उपन्यास में युगीन समस्याओं का चित्रण करना ही मूल उद्देश्य होना चाहिए। जिससे मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों का संघर्ष निभता दिखाई पड़ता है। अतः मनुष्य के अनुभव की गहराई और उसे समृद्ध करने का सार्थक प्रयत्न किसी भी उपन्यास का सार्थक उद्देश्य माना गया है।

            कहा जा सकता है कि उपर्युक्त सभी तत्वों के प्रयोग से ही उपन्यासकार अपने उद्देश्य में सफलता पा सकता है। निर्मल वर्मा के शब्दों में –

            “उपन्यास का गठन लेखक तैयार नहीं करता, स्वयं उसकी दृष्टि उसे निर्धारित करती है – जैसे नदी पहले अपना पाट तैयार करके नहीं बहती, स्वयं बहने के दौरान उसका पाट बनता जाता है।

            चूँकि आधुनिकता बताती है कि अस्तित्व हमेशा संघर्ष से बनती है इसीलिए उपन्यासकार यह समझता है कि जीवन की वास्तविकता सनातन और शाश्वत भाव में नहीं अपितु संघर्ष करते हुए मूल्यों की रचना करने में है। अतः उपन्यास का यथार्थ के साथ अनिवार्य रिश्ता माना गया है। उपन्यास में व्यक्ति और समाज को जितनी सफलतापूर्वक चित्रित किया जाता है उतना किसी भी अन्य साहित्यिक विधा के द्वारा नहीं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी उपन्यास को अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। यही कारण है कि उपन्यास आधुनिक जीवन का महाकाव्य बन गया है।

 

शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

देव नागरी लिपि का संक्षिप्त परिचय

देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, नेपाली, तामाङ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।अधितकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है)इसे शिरोरे़खा कहते हैं। इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग ‘हू-ब-हू’ उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका कोई ख़ास मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या आइएएसटी।इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं (उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं — क्योंकि वो सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।  १) वर्तमान में संस्कृत ,पाली , हिन्दी , मराठी , कोंकणी , सिन्धी, काश्मीरी , नेपाली , बोडो , मैथिली आदि भाषाऒं की लिपि है । २) उर्दू के अनेक साहित्यकार भी उर्दू लिखने के लिए अब देवनागरी लिपि का प्रयोग कर रहे हैं । ३) इसका विकास ब्राम्ही लिपि से हुआ है । ४) यह एक ध्वन्यात्मक ( फोनेटिक या फोनेमिक ) लिपि है जो प्रचलित लिपियों ( रोमन , अरबी , चीनी आदि ) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है । ५) इसमे कुल ५२ अक्षर हैं , जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं । ६) अक्षरों की क्रम व्यवस्था ( विन्यास ) भी बहुत ही वैज्ञानिक है । स्वर-व्यंजन , कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण , अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं । ७) एक मत के अनुसार देवनगर ( काशी ) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पडा । ८) इस लिपि में विश्व की समस्त भाषाओं की ध्वनिओं को व्यक्त करने की क्षमता है । यही वह लिपि है जिसमे संसार की किसी भी भाषा को रूपान्तरित किया जा सकता है । ९) इसकी वैज्ञानिकता आश्चर्यचकित कर देती है । १०) भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं ( उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान है । इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है । ११) यह बायें से दायें की तरफ़ लिखी जाती है । १२) देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल , सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है । देवनागरी लिपि के अनन्य गुण १) एक ध्वनि : एक सांकेतिक चिन्ह २) एक सांकेतिक चिन्ह : एक ध्वनि ३) स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास ४) वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता ( ५२ वर्ण , न बहुत अधिक न बहुत कम ) ५) उच्चार और लेखन में एकरुपता ६) उच्चारण स्पष्टता ( कहीं कोइ संदेह नही ) ७) लेखन और मुद्रण मे एकरूपता ( रोमन , अरबी और फ़ारसी मे हस्त्लिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं ) ८) देवनागरी लिपि सर्वाधिक ध्वनि चिन्हों को व्यक्त करती है । ९) लिपि चिन्हों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं ( जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है ) १०) मात्राओं का प्रयोग ११) अर्ध अक्षर के रूप की सुगमता देवनागरी पर महापुरुषों के विचार १) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी , उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है । – आचार्य विनबा भावे २) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है । – सर विलियम जोन्स ३) मनव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है । – जान क्राइस्ट ४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी ।

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

नाटक की परिभाषा

नाटक- भारत में नाटक साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसकी लम्बी परम्परा पाई जाती है। भारत में ही नाट्यशस्त्र की रचना सबसे पहले हुई थी। यहाँ नाट्यशस्त्र की अनेक आचार्य हुऐ, जिन्होंने नाटक पर बड़े विस्तार और गमभीरता से इस विधा पर विचार किया है। इन में भरत, धनंजय, रामचन्द्र, गुणचन्द्र, अभिनाव गुप्त, विश्वनाथ आदि के नाम अधिक प्रसिद्ध है। नाटक की परिभाषा- आचार्य धनंजय ने नाटक की परिभाषा इस प्रकार बताई है- अवस्था की अनुकृति नाटक है, यह परिभाषा सातर्क है, व्यवारिक और उपयोगी है। नाटक अनुकरण तत्व की प्रधानता है, साहित्य की सभी विधाओं में नाटक की वह विधा है, जिसमे अनुकरण पर सार्वधिक बल दिया गया है। लेकिन यहाँ सवाल उठता है। अनुकरण किसका हो, इसका उत्तर है, कार्ज तथा मनवीए जीवन के क्रियाशील कार्जो का मनुष्य अनेक परिस्थितियों से हर क्षण गुजरता है। उनकी भिन्न -भिन्न आवस्थाएँ होती है। भिन्न भिन्न अवस्थाओं में रहने के कारण उनके जीवन रंगमंच पर अनेक दृश्य अनेक स्थितियाँ आते जाते रहते है। नाटककार नाटक की रचना करते समय इन्हीं स्थितियों का अनुकरण करता है। नाटक का स्वरूप- नाटक में जीवन का यथार्कमूल्य अनुकरण होते हुए भी नाटककार काल्पना भी करता है। यदि काल्पना नाटक को साहित्य की विधा प्रधान करती है, इसलिए नाटक एक ऐसी कला है, जिसमे अनुकरण और काल्पना दोनो का योग रहता है। इसका उद्देश्य पहले शिक्षण और मनोरंजन था लेकिन अब इसका लक्ष्य जीवन की विभिन्न समस्यों का उदघाटक करना, और मानविऐ सवेंदनाओं को प्रकाश मे लाना है। यही कारण है कि प्रचीन काल के नाटकों से आज के नाटक बिल्कुल भिन्न पाऐ जाते है। नाटक के तत्व- भारतीये दृष्टि से नाटक के तीन तत्व माने गये है, वस्तु, नेता,(कलाकार) और रस वस्तु नाटक के कथा को कहते है। जिसके दो प्रकार होते है। आधिकारिक कथा और प्रशागिक कथा आधिकारिक कथा वह है, जो नाटक में आरंम्भ से अन्त तक पायी जाती है। और प्रशागिक कथा लघु होती है, जो नाटकीय कथा वस्तु की। धारा मे कुछ दूर चल जाती है। समाप्त हो जाती है, प्रचीन काल के नाटकों मे कथा दोहरी रूप में होती थी। अधिकारिक और प्रशागिक दोनो प्रकार के कथा वस्तुओं का उपयोग होता था, लेकिन आज की नाटकों में कथावस्तु एकी तरह के होती है अथात् केवल अधिकारिक कथा का प्रयोग होता है। आज का नाटक आदशवादी से अधिक यथातवादी हो गये है। ऐतिहासिक पौराणिक से अधिक समाजिक राजनिजिक हो गये है। नेता या कलाकार- नेता चरित्र को कहते है। यह नाटक की कथावस्तु का नेत्रित्व करता है, इसे नायक भी कहते है। लेकिन नेता में नाटक की सभी प्रकार के चरित्रों का समावेंश होता है, जैसी-नायक, नाईका, विधुशंक, प्रतिनायक, लघुचरित्र इत्यादि। नाटक शास्त्र के अनुसार नायक को सदगुण सम्पन होना चाहिए नाईका को भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। प्रचीन नाटकों के अंत में नायक, नाईका की विजय और प्रतिनायक के प्रजय दिखायें जाते थें, इस प्रकार के नाटक को सुखअंत नाटक कहते है। किन्तु आज दुखअंत नाटक भी लिखे जा रहे है। जिसमें नायक नाईका की दुखत अर्थ या उसकी मृत्यु हो जाती है। रस- यह काव्य और नाटक दोनों की आत्मा है। प्रचीन दृष्टि से नाटक में श्रृंगार कारूण और वीर तीनों रसों में कोइ एक प्रधान हो, ऐसी व्यवस्था है। नाटक की अंत में सत्य की जीत होती थी, इसलिए दशकों को आनन्द प्राप्त होती थी। वास्तव में रस नाटक के अतं में सारभूत प्रभाव होता है, लेकिन इसकी अवश्यकता नही समझी जाती है। नाटक के दो और तत्व देखने को मिलती है। जो नाटक से सीधा संबंध रखता है। इसमे रंगमंच नाटक से सीधा सम्बंध रखता है इसलिए नाटक को दृष्टि काव्य भी कहते है। अथात् इसे देखा जाये। नाटक की रचना तभी सफल होती है, जब वह रंगमंच पर सफलता पूर्वक अभिजीत किया जाऐं। साहित्य की अन्य विधाओं में रंगमंच की अवश्यकता नहीं होती। भाषा- नाटक की भाषा समान्यता सरल सुबोध और व्यवाहरिक होनी चाहिए इसकी भाषा में काविता की भाषा नही होनी चाहिए। यह पत्राअनुकूल हो, और देशकाल के अनुरूप हो, साहित्य की सभी विधाओं में नाटक सबसे अधिक लोकप्रिय है। क्योकि नाटक में दृश्यो को देखकर जो आनन्द मिलता है, वह कविता या उपन्यास पढंकर नहीं मिलता, समाजिको के मन में इसका सीधा प्रभाव पड़ता है, इसलिए इसकी महक्ता,महत्व सर्वधिक है।
काव्य के दो प्रमुख भेद माने गए हैं – दृश्य और श्रव्य। रसास्वादन एवं प्रभावात्मकता दोनों ही दृष्टियों से दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य से श्रेष्ठ माना गया है। नाटक दृश्य काव्य का अंग है। ‘काव्येषु नाटकं रम्यम’ के अनुसार काव्य में नाटक अधिक रमणीय होता है। क्योंकि यही एक ऐसी विधा है जिसमें अभिनय, संगीत, नृत्य, चित्र-कला, मूर्ति-कला, वस्त्राभूषण, भाषण, वार्तालाप आदि सभी कलाओं का संगम रहता है तथा पात्रों की प्रत्यक्ष सजीव मुद्राएं, चेष्टाएँ ऐसी मनोहारी रूप में प्रकट हो सकती हैं, होती हैं कि दर्शक मंत्रमुग्ध सा उसमें तन्मय हो जाता है। साथ ही श्रव्य-काव्य शिक्षितों से सम्बंधित है परन्तु दृश्य काव्य सामान्य जनता की वस्तु है। उसके मनोविनोद और हित के लिए नाटक या दृश्य का निर्माण हुआ है। नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने दृश्यकाव्य के लिए नाट्य शब्द का प्रयोग किया है। ‘नाट्य’ शब्द की व्युत्पत्ति नट’ धातु से है जिसका अभिप्राय अनुकरण करना है। जिसमें सभी प्रकार के मानवों के चरित्रों और भावों का अनुकरण किया जाता है, वही नाटक है। सिद्धांत कौमुदी में नाटक की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है – वाक्यार्थभिनयोर्नाट्यम’ – अर्थात वाक्यार्थ का अभिनय ही नाट्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि नाट्य अभिनय प्रधान विधा है। बाबू गुलाब राय के अनुसार –

            “नाटक का सम्बन्ध नट से है, अवस्थाओं की अनुकृति को नाट्य कहते हैं। इसी में नाटक शब्द की अधिक सार्थकता है।”

नाटक के अभिनय के पक्ष के आधार पर निकल ने कहा है – Drama is a copy of life, a mirror of custom, a reflection of truth.”

            अर्थात् नाटक जीवन की प्रतिलिपि प्रथाओं का दर्पण और सत्य का प्रतिबिम्ब है। इस प्रकार नाटक मूलतः मंचीय विधा है, लेकिन चूँकि वह प्राथमिक स्तर पर शब्दबद्ध रचना है इसलिए वह पाठ्य विधा है, जिसमें पाठक का मन ही मंच का कार्य करता है।