संपूर्ण उपन्यास की कहानी जिन उपकरणों से मिलकर बनती है वे कथावस्तु कहलाते हैं। यह उपन्यास की आधारभूत सामग्री है जो लेखक अपनी आवश्यकतानुसार विस्तृत जीवन क्षेत्र से चुनता है। इसके चुनाव में लेखक के लिए पहली आवश्यकता यही होती है कि वे जीवन के ऐसे मार्मिक एवं रोचक प्रसंगों, घटनाओं और परिस्थितियों का चयन करे जो रुचिकर और प्रेरणाप्रद हो। यथार्थ जीवन से कथावस्तु को चुने जाने के कारण उपन्यासकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह कपोलकल्पित न लगे तथा उसमें विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता की पुष्टि हो। कथानक ही उपन्यास की वह पूरी प्रक्रिया है जिस पर उपन्यास की विशेषता निर्भर करती है।
कथानक चाहे जहाँ से भी ग्रहण किया जा सकता है – इतिहास, पुराण, जीवनी, अनुश्रुति, विज्ञान, राजनीति इत्यादि। लेकिन उपन्यासकार का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह अपनी कथावस्तु का निरुपण करते समय जीवन के प्रति सच्चा और ईमानदार हो अर्थात उसकी कृति में मानव-जीवन और मानव स्वभाव का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सार्वभौमता उसका अनिवार्य गुण है। जब तक वह मानव-जीवन के संघर्षों, उसकी कामनाओं और आकांक्षाओं, उसके राग-द्वेषों, अभावों आदि का चित्रण नहीं करेगा, तब तक उसकी कृति का महत्व नहीं होगा। आभिजात्य कुलों और संपन्न परिवारों का जीवन ही सघन, घटना-संकुल, संघर्षशील और नैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं होता, गरीब, साधारण व्यक्तियों के जीवन में भी ये सब बातें पायी जाती हैं, अतः उपन्यास का विषय साधारण व्यक्ति और उनका जीवन भी हो सकता है; उपन्यासकार के लिए कथावस्तु चुनने की एकमात्र कसौटी यह है कि वह जीवन को समग्र और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करे।
कथा-प्रसंग चयन के बाद लेखक को चाहिए कि वह अपनी कथा-सामग्री को क्रमबद्ध, सुसंबद्ध रूप में सुनियोजित करे। कथा-नियोजन इस प्रकार होनी चाहिए कि पाठक की उत्सुकता और जिज्ञासा आरम्भ से लेकर अंत तक बनी रहे। कथा सूत्रबद्ध होनी चाहिए तथा सभी प्रासंगिक और अवांतर कथाएँ मुख्य कथा से जुड़ी होनी चाहिए। कथानक में तीन गुणों का होना आवश्यक है – रोचकता, संभाव्यता और मौलिकता। इस तरह कहा जा सकता है कि कथानक रोचक, सुसंबद्ध, गतिशील, उत्साहवर्धक, मौलिक तथा स्वाभाविक जीवन वृत्तियों से पूर्ण होना चाहिए।
पात्र अथवा चरित्र-चित्रण
उपन्यास में पात्र वह मूलशक्ति है जिसके सहारे जीवन यथार्थ या परिस्थितियों का ब्यौरा दिया जाता है। अर्थात उपन्यास के भीतर परिस्थितियों को धारण करने वाला पात्र कहलाता है। पात्र जितने सजीव और यथार्थ जीवन से सम्बद्ध होंगे, उपन्यास उतना ही आकर्षक होगा। अतः जहाँ तक संभव हो सके सभी पात्रों का सजीव चरित्र-चित्रण होना चाहिए। पात्रों के कार्यों और विचारों का पाठक के मानस पटल पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ना चाहिए। उपन्यासकार की महानता इसी बात पर निर्भर करती है कि उसके पात्र कितने समय तक पाठक के स्मृति पटल पर अंकित रहते हैं, तथा उसकी भावना को किस हद तक प्रभावित करते हैं। वे पात्र जो देशकाल की सीमा पार कर पाठकों के चित्त में स्थायी रूप से बस जाते हैं, अमर पत्र कहलाते हैं, जैसे – हैमलेट, सूरदास, होरी आदि। उपन्यासकार की महानता की एक कसौटी यह भी है कि वह अपनी कृतियों में चरित्र को कितनी विविधता दे सका है, उसके चरित्र-चित्रण की सीमाएं क्या हैं? उसके पात्रों में कितना विस्तार और कितनी गहराई है? इस प्रकार उपन्यासकार की पात्र सृष्टि स्वाभाविक, यथार्थ, सजीव और मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए।
चरित्र-चित्रण में उपन्यासकार उस प्रभाव को ही अंकित नहीं करता जो बाह्य परिस्थितियों के द्वारा पात्रों पर पड़ता है, प्रत्युत वह पात्रों के अंतर्द्वन्द्व का भी चित्रण करता है। आजकल उपन्यास में इस प्रकार के अंतर्द्वन्द्व को ही महत्व दिया जाता है। उपन्यास में चरित्रों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है –
वर्गगत और व्यक्तिगत पात्र – उदाहरण के लिए गोदान में रायसाहब और अज्ञेय का शेखर वर्गगत एवं व्यक्तिगत पत्र है।
आदर्श और यथार्थ चरित्र – आदर्श पात्र में गुणों की प्रधानता होती है जबकि यथार्थ पात्रों में अच्छाई-बुराई दोनों का समन्वय होता है।
स्थिर और गतिशील चरित्र - क्रमशः गोदान का होरी तथा सेवासदन का विनय गतिशील एवं स्थिर पात्र है।
किसी भी उपन्यास में सफल चरित्र-चित्रण के लिए मानव-स्वभाव का सामान्य ज्ञान, मनुष्य के अंतर्मन का परिचय, उसके भावों, विचारों, रागद्वेशों, अन्तःसंघर्षों की जानकारी के अतिरिक्त सहानुभूति, कल्पना-शक्ति तथा वर्ग-विशेष की जानकारी अपेक्षित है। घटनाओं और पात्रों के बीच तारतम्यता का होना भी आवश्यक है। घटनाएं ऊपर से थोपी या आकस्मिक प्रतीत न हों, पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं से उद्भूत होती प्रतीत हों और पात्र लेखक की कठपुतली-मात्र न होकर स्वतंत्र अस्तित्व वाले हों। परिस्थितियाँ पात्रों को एक विशिष्ट दिशा में उन्मुख होने की प्रेरणा दें, तो पात्र परिस्थितियों को बदलने में, घटनाओं को नया मोड़ देने में समर्थ हों; न तो घटनाएं और कार्य पात्र की प्रकृति और परिस्थिति के प्रतिकूल हों और न पात्र परिस्थितियों से अलिप्त तथा असामान्य प्रतीत हों।
कथोपकथन
उपन्यास में कथोपकथन से तात्पर्य है दो या दो से अधिक पात्रों का परस्पर वार्तालाप। कथोपकथन के प्रमुख उद्देश्य हैं- पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथानक के प्रवाह में सहायता प्रदान करना तथा घटनाओं में तीव्र गति का संचार करना।
कथोपकथन जितने पात्रानुकूल, स्वाभाविक, अभिनयात्मक, संक्षिप्त, सरल एवं प्रभावी होंगे, घटनाओं एवं चरित्रों में उतनी ही सजीवता आएगी। चुस्त, चुटीले एवं प्रसंगानुकूल कथोपकथन से कृति में एक विशेष गरिमा का संचार होता है। लेखक का कौशल अन्य बातों में तो परखा ही जाता है, कथोपकथन में खास रूप से परखा जाता है।
यदि उपन्यास के कथोपकथन रोचक, स्वाभाविक, सहज, पात्र और परिस्थिति के अनुकूल हो तो उनसे उपन्यास में नाटक की सी विशदता, सजीवता और यथार्थता आ जाती है। किन्तु कथोपकथन का अधिकाधिक प्रयोग करने के स्थान पर विवेकपूर्ण एवं सोद्देश्य प्रयोग होना चाहिए। यदि लेखक में कुशल कथोपकथन-योजना की क्षमता है, तो वह विश्लेषण, मत प्रतिपादन तथा अपनी ओर से कार्य-कारण-मीमांसा का काम कथोपकथन से ही ले सकता है। कथोपकथन की भाषा ही पात्रानुकूल नहीं होनी चाहिए वरन उसका विषय भी पात्रों के मानसिक धरातल के अनुरूप होना वांछनीय है। लेखक कभी-कभी निजी सिद्धांतों के उद्घाटन और गूढ़ तथा विशेष ज्ञान के प्रदर्शन का मोह संवरण नहीं कर सकते हैं। उन सिद्धांतों के उद्घाटन के लिए वैसे ही पात्रों की श्रृष्टि होनी चाहिए।
देशकाल-वातावरण
उपन्यास में देशकाल- वातावरण अथवा युग-धर्म की सजीवता भी आवश्यक है। इसी कारण लेखक अपने उपन्यास में युग विशेष और देश विशेष की सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाज, आचार-विचार, संस्कृति, सभ्यता और विचारधारा पर प्रकाश डालता है, जिससे उसका उपन्यास वास्तविक और सजीव बन जाए। पात्रों के कथन, क्रिया-कलाप, वेश-भूषा, खान-पान, आचार-विचार सबमें युगधर्म की स्वाभाविकता झलकनी चाहिए। वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास और प्रेमचंद के सामाजिक उपन्यास युगधर्म की सजीव झाँकियाँ प्रस्तुत करते हैं।
वस्तुतः उपन्यास मानव-जीवन का चित्रण है जिसमें प्रधानतः मनुष्य के चरित्र का सजीव वर्णन रहता है। निश्चय है कि मनुष्य का सम्बन्ध अपने युग, समाज, देश और परिस्थितियों से रहता है अथवा मानव के चारित्र्य की पृष्ठभूमि में देश-काल का चित्रण उसका आवश्यक अंग है। जितनी ही वास्तविक पृष्ठभूमि में चरित्रों को प्रकट किया जायेगा, उतनी ही गहरी विश्वसनीयता का भाव जगाया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि के बिना हमारी कल्पना को ठहरने की कोई भूमि नहीं मिलती और न हमारी भावना ही रमती और विश्वास करती है।
परिस्थिति अथवा पृष्ठभूमि का चित्रण दो रूपों में होता है – एक तो समान और अनुकूल रूप में, दूसरे चरित्रों के लिए विषम और प्रतिकूल रूप में। पात्रों और उद्देश्य के अनुरूप उपन्यासकार दोनों ही स्थितियों का चित्रण कर हमारी कल्पना और अनुभूति को सजग करता है। सामाजिक उपन्यासों में तो लेखक प्रायः अपने युग की देखी-सुनी और अनुभूत पृष्ठभूमि देता है और पाठक के समसामयिक होने के कारण उसको जांचने और विश्वास करने का अवसर रहता है। आगामी युगों के पाठक के लिए तो सामाजिक उपन्यासकार सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री प्रदान करता है। अतः मेरा तो विश्वास यह है कि यदि उपन्यासकार अपने समाज का अत्यंत यथार्थ - यहाँ तक कि ऐतिहासिक यथार्तता को ध्यान में रखकर वास्तविक जीवन का चित्रण करता है, तो वह न केवल साहित्य की सृष्टि करता है, वरन सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास के लिए भी सामग्री तैयार करता है या पृष्ठभूमि बनता है। सामाजिक उपन्यासकार की अपेक्षा अधिक कठिनाई ऐतिहासिक उपन्यासकार की युग की पृष्ठभूमि का चित्रण करने में उपस्थित होती है।
इस तरह कथानक को वास्तविकता का आभास देने के साधनों में वातावरण मुख्य है। उसके लिए स्थानीय ज्ञान अत्यंत आवश्यक होता है। वर्णन में देश विरुद्धता और कल-विरुद्धता के दोष नहीं आने चाहिए। देश-काल-चित्रण का वास्तविक उद्देश्य कथानक और चरित्र का स्पष्टीकरण है। अतः उसे इसका साधन ही होना चाहिए, स्वयंसाध्य न बन जाना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों का संयोजन यथार्थता का भी आभास देता है और भावों को उद्दीप्त भी करता है। अतः स्थानिक विशेषताओं का ध्यान रखते हुए प्रकृति की भावानुकूल पृष्ठभूमि देना उपन्यास की रोचकता की वृद्धि में सहायक होता है।
भाषा-शैली
वस्तुतः उपन्यासकार भाषा-शैली के माध्यम से ही अपनी अनुभूतियों को अभिव्यंजित करता है। भाषा में सरलता, स्वाभाविकता, सजीवता, भावानुरुपता, प्रभावोत्पादकता, स्वाभाविक अलंकरण, लाक्षणिक और व्यंजक प्रयोग, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि कलात्मक प्रयोग व भाषा-शैली, प्रत्यक्ष शैली, पत्र-शैली, पूर्व-दीप्ति शैली में से किसी एक शैली का प्रयोग कर सकता है।
जितनी स्वाभाविक अर्थात पात्रानुकूल और स्थिति के अनुरूप शैली होगी, उतना ही उसका प्रभाव पड़ेगा। उपन्यास की शैली संकेतात्मक न होकर विवृतात्मक होती है, क्योंकि उसे पूर्ण वातावरण और उसमें रस और भावों की सृष्टि करनी होती है। अतः पात्र की शिक्षा, संस्कृति और मानसिक धरातल के अनुरूप ही उसकी भाषा होनी चाहिए। इसके लिए पांडित्यपूर्ण, व्यंग्ययुक्त भाषा से लेकर ठेठ प्रादेशिक और ग्राम्य भाषा तक का प्रयोग यथावश्यक रूप में किया जाता है। शैली के सम्बन्ध में सामान्य-रूप से ये बातें ध्यान में रखने पर भी एक उपन्यासकार की शैली दूसरे से भिन्न होती है। प्रत्येक का अपना निजी अनुभव-क्षेत्र, वातावरण, संस्कार एवं शिक्षा होती है, अतः जीवन को देखने और उसको चित्रित करने के अपने निजी ढंग हैं। निजीपन के होते हुए भी, स्वाभाविकता और प्रभाव शैली की विशेषताएँ होनी चाहिए।
उद्देश्य
साहित्य की सभी विधाओं का उद्देश्य आनंद प्रदान करना है। उपन्यास भी उससे वंचित नहीं है। साहित्य आनंद प्रदान करता है किन्तु वह सस्ते मनोरंजन का साधन नहीं बन सकता। उपन्यासकार को अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति इस प्रकार करनी चाहिए कि वह उपदेशात्मक न दिखे। बल्कि पाठक अपनी बुद्धि एवं विवेक के अनुसार निष्कर्ष निकाले, उपन्यास का गठन इस प्रकार से होना चाहिए। उपन्यास के उद्देश्य के सन्दर्भ में प्रेमचंद ने कहा है कि –
“उपन्यास में युगीन समस्याओं का चित्रण करना ही मूल उद्देश्य होना चाहिए। जिससे मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों का संघर्ष निभता दिखाई पड़ता है।” अतः मनुष्य के अनुभव की गहराई और उसे समृद्ध करने का सार्थक प्रयत्न किसी भी उपन्यास का सार्थक उद्देश्य माना गया है।
कहा जा सकता है कि उपर्युक्त सभी तत्वों के प्रयोग से ही उपन्यासकार अपने उद्देश्य में सफलता पा सकता है। निर्मल वर्मा के शब्दों में –
“उपन्यास का गठन लेखक तैयार नहीं करता, स्वयं उसकी दृष्टि उसे निर्धारित करती है – जैसे नदी पहले अपना पाट तैयार करके नहीं बहती, स्वयं बहने के दौरान उसका पाट बनता जाता है।”
चूँकि आधुनिकता बताती है कि अस्तित्व हमेशा संघर्ष से बनती है इसीलिए उपन्यासकार यह समझता है कि जीवन की वास्तविकता सनातन और शाश्वत भाव में नहीं अपितु संघर्ष करते हुए मूल्यों की रचना करने में है। अतः उपन्यास का यथार्थ के साथ अनिवार्य रिश्ता माना गया है। उपन्यास में व्यक्ति और समाज को जितनी सफलतापूर्वक चित्रित किया जाता है उतना किसी भी अन्य साहित्यिक विधा के द्वारा नहीं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी उपन्यास को अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। यही कारण है कि उपन्यास आधुनिक जीवन का महाकाव्य बन गया है।